Your cart is empty now.
इस किताब के आलेख ‘बराबरी की छप्पनछुरी’ का एक अंश : ‘फ़ेमिनिज्म के समर्थक पतियों की जान को हज़ार ग़म होते हैं और उन ग़मों का समझदार साझीदार कोई नहीं होता. रिश्तेदारी में जोरू का ग़ुलाम कहलाना पड़ता है. नौकर-चाकर, अर्दली जैसे ग़मख़्वार लोग नामर्द मानकर बेचारा और बेचारगी का मारा कहा करते हैं... ऐसी औरतों के हमचश्म बनने वाले पतियों की जान को घर-गृहस्थी के बहुत से काम ही नहीं बढ़ जाते, बल्कि उनको ख़ुशी-खु़शी किया जा रहा है कि नौटंकी को भी अंजाम देना होता है... एकबारगी तो ऐसे हक़पसन्द पति का जी चाहता है अपनी ख़ते पेशानी पर ज़ार-ज़ार रोए और चीख़-चीख़ कर कहे कि ‘हां मैं एक ज़ालिम, कमज़र्फ़ दक़ियानूसी पति हूं. कर लो मेरा क्या करोगे. बहुत हुआ, अब मैं जीना चाहता हूं, वैसे ही जैसे दुनिया के सारे पति जी रहे हैं... जानेजां! बराबरी नाम की यह कमबख़्त दिलरुबा आते-आते रह जाती है हर बार. दोग़ली और दग़ाबाज. एहसान फ़रामोश. मुई को हर क़दम पर इम्तहानात देने-लेने होते हैं. रस्साकशी को अपनी जान पर झेलकर दिखाना होता है. एक क़दम फिसला और यह लो आफ़ते जान. बराबरी की सेटिंग करने-करने में ही दुनिया के तमाम झमेले मासूम जान पर आ पड़ते हैं, जबकि मन कहता रह जाता है कि आखि़र और भी ग़म हैं जमाने में बराबरी के सिवा.