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साहित्य और मीडिया की दुनिया में विनीत कुमार की किताब 'मंडी में मीडिया', अपने गहन शोध के चलते सुप्रसिद्ध है। यह किताब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया के भ्रम को दूर करती है। किताब में मीडिया की नैतिकता और सेल्फ रेगुलेशन जैसे सवालों को उठाया गया है। पुस्तक ‘पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग’ के सपने से शुरु होती है लेकिन जल्दी व्यवसाय के उस फॉर्मूले की चर्चा पर आ जाती है जिसने हाल के वर्षों में टेलीविजन मीडिया की भूमिका को संदिग्ध बनाया है। ताज़ा दौर में मुठभेड़ करती यह शोधपरक ताज़ातरीन किताब – जिसमें मीडिया सरोकारों का एक दिलकश धंधा बनकर हमारे ज़ेहन पर क़ाबिज़ हो चला है। यह पुस्तक उन पाठकों को निराश कर सकती है जो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानते आये हैं। देश की सबसे बड़ी कंपनी के सबसे बड़े मीडिया शंहशाह बनने के दौर में यह बताने की जरूरत नहीं कि मीडिया की रगों में अब किसका खून दौड़ता है? लोकतंत्र के इस नए बसंत में अन्ना,आमजन, अंबानी और अर्णब की आवाजें एक-दूसरे से गड्डमड्ड हो गई लगती हैं। 'मीडिया बिकाऊ है' के चौतरफा शोर के बीच और जस्टिस काटजू की खुलेआम आलोचना के बाद आत्म-नियंत्रण और नैतिकता की चादर छोटी पड़ने लगी है। ये नज़ारा कितना नया है, ये समझने के लिए दूरदर्शन व आकाशवाणी के सरकारी गिरेबान में झाँक लेना भी जरुरी लगता है। चित्रहार के गाने और फीचर फ़िल्में बैकडोर की लेन-देन से तय होती रहीं। स्क्रीन की पहचान भले ही 'रूकावट के लिए खेद है' से रही हो पर ऑफिस की मशहूर लाइन तो यही थी- आपका काम हो जायेगा बशर्ते....। सड़क पर रैलियों की भीड़ घटाने के लिए फ़िल्म 'बाबी' का ऐन वक्त पर चलाया जाना दूरदर्शन का खुला सच रहा है । इन सबके बाबजूद पब्लिक ब्राडकास्टिंग आलोचना के दायरे में नहीं है तो इसके पीछे क्या करण हैं, यह किताब इस पर विस्तार से चर्चा करती है । इतिहास के छोटे-से सफर के बाद बाकी किताब वर्तमान की गहमा-गहमी और उठा-पटक पर केन्द्रित है।निजी मीडिया ने इस पब्लिक ब्राडकास्टिंग की बुनियाद को कैसे एक लान्च-पैड की तरह इस्तेमाल किया और खुद एक ब्रांड बन जाने के बाद इसकी जड़ें काटनी शुरू कर दीं, यह सब जानना अपने आप में दिलचस्प है। "हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं" जैसे दावे के साथ अपनी यात्रा शुरू करनेवाला निजी मीडिया आगे चलकर कॉर्पोरेट घरानों की गोद में यूँ गिरा कि नीरा राडिया जैसी लॉबीइस्ट की लताड़ ही उसका बिज़नेस पैटर्न बन गया। सवाल है कि किसी ज़माने में पत्रकारिता को मिशन मानने वाला पत्रकार आज कहाँ खड़ा है - मूल्यों के साथ या बैलेंस-शीट के पीछे ? जब मीडिया के बड़े-बड़े जुर्म एथिक्स के पर्दे से ढँक दिए जाते हों तब यह सवाल उठना लाजिमी भी है कि राडिया-मीडिया प्रकरण और उसकी परिणति के बाद लौटे 'सामान्य दिन' क्या वाकई सामान्य हैं, या हम मीडिया, सत्ता, और कॉर्पोरेट पूँजी की गाढ़ी जुगलबंदी के दौर में अनिवार्य तौर पर प्रवेश कर चुके हैं, जहाँ केबल ऑपरेटर उतना ही बड़ा खलनायक है, जितना हम प्रायोजकों को मानते आये हैं।