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सन 2002 में जब हरिओम की ग़ज़लों की पहली किताब ‘धूप का परचम’ आयी तो हिंदी-उर्दू ज़बान की सियासी, ग़ैर वाज़िब बहसों के बाहर जाकर ग़ज़ल प्रेमियों ने उसे खूब सराहा—ख़ासकर ग़ज़लों के मज़मून और बात कहने के तेवर को लेकर। तमाम समीक्षकों ने उस किताब पर दुष्यन्त कुमार का असर देखा। स्वयं शायर को भी इस बात से इनकार नहीं है और वह मानता है कि हिंदी ग़ज़लों में दुष्यन्त कुमार एक मेयार हैं। इलाहबाद में रहते हुए वहां की रचनात्मक विरासत का एक हिस्सा जाने-अनजाने उसके भीतर भी उतर आया है और इस विरासत में दुष्यन्त तो हैं ही, इलाहाबाद की संवेदनात्मक और वैचारिक परम्परा भी है। ‘धूप का परचम’ के तकरीबन पन्द्रह बरस बाद ग़ज़लों की यह दूसरी किताब ‘ख़्वाबों की हँसी’ पाठकों के सामने है। ‘ख़्वाबों की हँसी’ में संवेदन और विचार के स्तर पर वैसा उतावलापन और आवेग नहीं है जैसा कि पहले संग्रह में था। यहाँ शायरी में थोड़ा ठहराव, संजीदगी, सब्र और सादगी दिखेगी। हालांकि इस बीच हरिओम ग़ज़लों के अलावा लगातार कहानियां और कविताएँ लिखते रहे लेकिन ग़ज़लें उनके तसव्वुर के दायरे से कभी बाहर नहीं जा सकीं। उसकी एक वजह यह भी थी कि उनके भीतर एक गायक, और वह भी ग़ज़ल गायक, ग़ज़लों-नज़्मों और शेरो-शायरी की हमारी परंपरा से गहरी वाबस्तगी बनाए हुए था। शायरी में चंद लफ़्ज़ों में असरदार बात कहने की ताक़त तो है ही साथ ही मौसीक़ी से उसका रिश्ता उसे और मुफ़ीद बना देता है। ‘ख़्वाबों की हँसी’ में उनकी कुछ ताजी नज़्में भी शामिल की हैं। उनमें भी आपको एक लयकारी दिखेगी। वे अपनी कविताओं में भी एक लय बरतने की कोशिश करते हैं और मानते हैं कि कविता कितनी भी छंद मुक्त हो जाय यह लयकारी ही उसे गद्य बनने से रोकती है। इस लय को कविता की संरचना से अलगाया नहीं जा सकता।